विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध - Vidyarthi aur Anushasan essay in Essay in Hindi - Vidyarthi aur Anushasan par Nibandh - Essay on Student and Discipline in Hindi

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रूपरेखा : प्रस्तावना - अनुशासन का महत्व - विद्या-अध्ययन का काल - विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण - कर्तव्यों की तिलांजलि देकर अधिकारों की माँग - उचित मार्गदर्शन का अभाव और अनुशासनहीनता - दूषित वातावरण का प्रभाव - उपसंहार।

परिचय | विद्यार्थी और अनुशासन की प्रस्तावना | विद्यार्थी जीवन में अनुशासन

माता-पिता तथा गुरुजनों की आज्ञाएँ ज्यों की त्यों स्वीकार करना ही अनुशासन कहा जाता है। अनुशासन का शाब्दिक अर्थ शासन के पीछे चलना है, अर्थात् गुरुजनों और अपने पथ-प्रदर्शकों के नियन्त्रण में रहकर नियमबद्ध जीवनयापन करना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करना ही अनुशासन कहा जा सकता है। अनुशासन विद्यार्थी जीवन का प्राण है। अनुशासनहीन विद्यार्थी न तो देश का सध्य नागरिक बन सकता है और न अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सफल हो सकता है। वैसे तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन परमावश्यक है, परन्तु विद्याथी-जीवन के लिये यह सफलता की एकमात्र कुंजी है।


अनुशासन का महत्व | विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन का महत्व

विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का बड़ा महत्त्व होता है। छात्र को हर सुबह जल्दी जग जाना चाहिए। उसे अपने बड़ों का सम्मान करना चाहिए। उसे अपना अधिकांश समय अपने अध्ययन में देना चाहिए। उसे झूठ नहीं बोलना चाहिए। उसे कभी भी धोखा नहीं देना चाहिए। उसे कभी किसी के प्रति अशिष्ट नहीं होना चाहिए। उसे अच्छी संगति रखनी चाहिए। छात्र देश के भविष्य होते हैं। इसलिए उन्हें उचित रूप से अनुशासित होना चाहिए। संसार के प्रत्येक महान् व्यक्ति का जीवन अनुशासित रहा है। अनुशासन के बिना कोई व्यक्ति सफल नहीं हो सकता। अनुशासन हमें हमेशा शानदार अवसर देता है जैसे, आगे बढ़ने का सही तरीका, जीवन में नई चीजें सीखने, कम समय के भीतर अधिक अनुभव करने, आदि। जबकि, अनुशासन की कमी से बहुत भ्रम और विकार पैदा होते हैं। अनुशासनहीनता के कारण जीवन में कोई शांति और प्रगति नहीं होती है, जिस कारण मनुष्य अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाता और अपने जीवन से निराश होकर गलत कदम उठाने पर विवश हो जाता हैं।


विद्या-अध्ययन का काल | विद्यार्थी जीवन में विद्या और अध्ययन का समय

'विद्यार्थी' का अर्थ है 'विद्याया: अर्थी' अर्थात्‌ विद्या की अभिलाबा रखने वाला। अनुशासन का अर्थ है शासन या नियंत्रण को मानना। अपनी उच्छ्खंल चेंष्टाओं को काबू में रखना। चार वर्ष से पच्चीस वर्ष तक की आयु विद्या-अध्ययन का काल मानी जाती है। इसमें इस अवस्था में विद्यार्थी पर न घर-बार का बोझ होता है, न सामाजिक दायित्व का और न आर्थिक चिन्ता का। वह स्वतन्त्र रूप से अपना शारीरिक, बौद्धिक व मानसिक विकास करता है। यह कार्य तभी सम्भव है, जन वह अनुशासन में रहे। यह शासन चाहे गुरुजनों का हो, चाहे माता-पिता का। इससे उसमें शील, संयम, ज्ञान-पिपासा तथा नग्रता की वृत्ति जागृत होगी।


विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण | विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों का अनुशासनहीनता होने का कारण

विद्यार्थी में अनुशासन के विरोध की दुष्प्रवृत्ति कुछ कारणों से जन्म लेती है । एक डेढ़ वर्ष का शिशु दूरदर्शन देखने लगता है। देखने-देखते वह जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसे दूरदर्शन को भाषा समझ में आने लगती है । पाँच वर्ष का होते-होते वह भाषा ही नहीं भावों को भी सही या गलत समझने लगता है। प्रेम और वासना के पश्चात दूसरी शिक्षा जो दूरदर्शन देता है, वह है विद्रोह और विध्वंस की । शिशु जब किशोरावस्था तक पहुँचता है तो विद्रोह के अंकुर परिवार में फूटने लगते हैं। उसे पारिवारिक अनुशासन से चिढ़ हो जाती है। रोकर घर की चीजें फेंककर, उलटकर अपना विद्रोह प्रकट करता है। टी.वी. की भाषा में माता-पिता या अग्रजों को गाली देता है। अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति लेकर वह विद्यार्थी बनता है। दूसरी ओर, दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक नेताओं ने इस निश्चिन्त विद्यार्थी-वर्ग को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए राजनीति में घसीटकर अनुशासनहीनता का मार्ग दिखा दिया है। लगता है यह अनुशासनहीनता न केवल अध्ययन-संस्थाओं को ही, अपितु सम्पूर्ण भारत को निगल जाएगी।


कर्तव्यों की तिलांजलि देकर अधिकारों की माँग | विद्यार्थियों का कर्तव्यों का त्याग देना

आज के विद्यार्थी और अनुशासन में ३ और ६ का सम्बन्ध है। वह कर्तव्यों को तिलांजलि (त्याग) देकर केवल अधिकारों की माँग करता है और येन-केन-प्रकारेण अपनी आकांक्षाओं की तृप्ति तथा अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष पर उतर आया है। जलसे करना, जुलूस निकालना, धुआँधार भाषण देना, चौराहों या सार्वजनिक स्थान पर नेताओं की प्रतिमाएँ तोड़ना, अकारण (बिना किसी कारण) किसी की पिटाई करना, हत्या करना, मकान व दुकान लूटना, सरकारी सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना, बसों को जलाना, ऐसे अशोभनीय कार्य हैं जो विद्यार्थी-वर्ग के मुख्य कार्यक्रम बन गए हैं।


उचित मार्गदर्शन का अभाव और अनुशासनहीनता

वस्तुत: आज का विद्यार्थी विद्या का अर्थी अर्थात्‌ अभिलाषी नहीं, अपितु विद्या की अरथी निकालने पर तुला है। उसमें रोष, उच्छुंखलता, स्वार्थ और अनास्था घर कर गई है। पढ़ने में एकाग्रचित्तता के सथार पर विध्वंसात्मक उसके मस्तिष्क को खोखला कर रही है। रही-सही कसर फैशन-परस्ती और नशाखोरी ने पूरी कर दी।

अनुशासनहीनता के कारण विवेकहीन विद्यार्थी भस्मासुर की भाँति अपना ही सर्वस्व स्वाहा कर रहा है। मन की विनाशकारी प्रवृत्ति उसके अध्ययन में बाधक है। परिणामत: प्रश्न-पत्र ठीक तरह हल नहीं होंगे तो अंक अच्छे नहीं आएंगे। अगली कक्षाओं में प्रवेश में और जीवन की प्रगति में बाधाएँ आएँगी।

दूसरी ओर, माता-पिता के उचित संरक्षण एवं मार्ग-दर्शन के अभाव में बच्चे उत्तम संस्कार ग्रहण नहीं कर पाते । विद्यालय या महाविद्यालयों में प्रवेश करके ये मर्यादाहीन और उच्छृंखल बन जाते हैं। उनकी प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाता है, मन-मस्तिष्क पर विक्षोभ छा जाता है।

तीसरे, राजनीतिज्ञों की रट है कि 'वर्तमान शिक्षा दोषपूर्ण' है। नए-नए प्रयोगों ने विद्यार्थियों में वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के प्रति अरुचि उत्पन कर दी है। अंगूठाटेक राजनीतिज्ञ जब विश्वविद्यालयों में भाषण करता है या अल्पज्ञ और अर्द्धशिक्षित नेता शिक्षा के बारे में परामर्श देता है तो माँ सरस्वती का सिर लज्जा से झुक जाता है।

चौथे, आज शिक्षक आस्थाहीन हैं शिक्षा-अधिकारी अहंकारी तथा स्वार्थी। परिणामस्वरूप शिक्षक और शिक्षा अधिकारी विद्यार्थी से व्यावसायिक रूप में व्यवहार करते हैं। विद्यार्थी के हृदय में इसकी जो प्रतिध्वनि निकलती है, वह 'आचार्यदेवो भव' कदापि नहीं होती।


दूषित वातावरण का प्रभाव | विद्यार्थी के जीवन में दूषित वातावरण का प्रभाव

नि:सन्देह यह बात माननी पड़ेगी कि आज के स्वार्थपूर्ण अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थी शान्त नहीं रह सकता। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक है। उसका गर्म खून उसको अन्याय के विरुद्ध ललकारता है। जिस प्रकार अग्नि, जल और अणुशवक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक, दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार विद्यार्थी के गर्म खून को रचनात्मक दिशा देने को आवश्यकता है। यह तभी सम्भव है जब प्राचीनकाल के गुरुकुलों का-सा शान्त वातावरण हो, चाणक्य जैसे स्वाभिमानी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विरजानन्द सदृश तपस्वी गुरु हों।


उपसंहार

देश के विद्यार्थियों में अनुशासन स्थापित किये बिना देश का कल्याण नहीं हो सकता। आज का विद्यार्थी कल का सभ्य नागरिक नहीं हो सकता, इसके लिए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे। देश के नागरिकों का निर्माण अध्यापकों के हाथों में है। उन्हें भी अपने कर्तव्य का पालन करना होगा। स्वतंत्रता के पहले बहुत-सी समस्याएँ नहीं थीं। लेकिन अब, हमारा देश भ्रष्टाचार, घूसखोरी, घोटाला, धोखेबाजी, आतंकवाद आदि-जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है। कुछ युवा भ्रमित हो चुके हैं। सिर्फ शिक्षित और अनुशासित विद्यार्थी ही हमारे देश को उज्ज्वल भविष्य दे सकते हैं। अंत: यह कहना गलत नहीं होगा कि अनुशासन वह सीढ़ी है जिसके माध्यम से विद्यार्थी अपने जीवन में सफलता की ऊँचाई की ओर चढ़ सकता है। यह उसे अपने लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है और उसे अपने लक्ष्य से भटकने नहीं देता हैं। अनुशासन ही इन समस्याओं का एकमात्र समाधान है।


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